Thursday, March 10, 2011

ना मंजिल की फ़िक्र

ना मंजिल की फ़िक्र हो.. ना रहे समय का होश..
ना थकान का हो कोई निशाँ.. बस यूँ चलते रहने का जोश..

साथ रहे सब यार अपने.. करते रहें नयी राहों की खोज..
मस्ती में चलते रहना हमें.. अपनी यही सोच..

जंगल हो या बर्फ, पहाड़ हो या रेगिस्ताँ..
चाहे ना मिले कहीं आसरा, ये दुनिया अपना मकाँ..

फिर ओढें आसमाँ की चादर.. ये धरती बने अपनी सेज..
पहियों की फिर क्या दरकार .. जब हिम्मत पे चले हम तेज़..

कलकल करती नदियाँ हों .. पेड़ पौधे हों खामोश..
मिलने अपनी मिटटी से .. निकल पड़े हम खानाबदोश..

3 comments:

  1. Excellent work, Chetan..keep going..

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  2. A fidgety mind, a restless soul
    exploring places our only goal
    sand,sea,forest or mountain
    bikes ,trains, jeep or train
    an idea of tour makes us tipsy
    we are the one, the gypsyingypsy

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